मेरे लिए यह हमेशा से जिज्ञासा का विषय रहा हैं कि आखिर किसी बाबा या राजनेता के अंधभक्त इतना भड़कते क्यों हैं ? कोई भी विवेकशील तर्क उनके गले क्यों नहीं उतरता ? विपश्यना के दस दिन के शिविर में भाग लेने से मुझे इसका भी सटीक उत्तर मिल गया। विपश्यना में भावनात्मक प्रज्ञा और आसक्ति रहित प्रज्ञा को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है। भावनात्मक प्रज्ञा से तात्पर्य ऐसे ज्ञान से है जो स्वयं की अनुभूति पर आधारित हो। आसक्ति रहित प्रज्ञा से तात्पर्य है कि किसी भी ज्ञान और दर्शन से आसक्ति और राग-द्वेष न हो। इसके लिए स्वयं के भीतर की बोधि को जगाने की जरूरत है। हमारे नेताओं को कुर्सी के प्रति आसक्ति है। फर्जी बाबाओं को धार्मिक प्रपंच की आड़ में भोग-विलास के प्रति आसक्ति है। दोनों श्रेणियों के लोग प्रचार के कर्मकांडों से अपनी ऐसी कृत्रिम छवि गढ लेते हैं, जैसा कि वे वास्तव में होते नहीं हैं। जिन समर्थकों और अनुयायियों के भीतर की बोधि जगी नहीं होती या जो दिमागी तौर पर मजबूत नहीं होते,वे इन नेताओं और फर्जी बाबाओं की लुभावनी बातों में आसानी से फंस  जाते हैं या इन पर मोहित हो जाते हैं। विपश्यना के शब्दों में कहें तो इन अंधभक्तों में अपने नेता या बाबा की छवि के प्रति आसक्ति हो जाती है। व्यक्ति स्वभाव से स्वार्थी और आत्म केंद्रित होता है। कोई भी अनचाही बात हुई नहीं कि उसमें आवेग उमड़ने लगते हैं। ऐसे में यदि कोई व्यक्ति इन नेताओं या बाबाओं के बारे कोई ऐसी तर्कसंगत बात कहे, जिससे उनकी छवि खंडित होती हो तो अंधभक्ति आसक्ति के वशीभूत होकर भड़केंगे ही। ऐसे अंधभक्तों को करुणा और प्रेम से देखने की जरूरत  है क्योंकि वे अज्ञानता की अँधेरी सुरंग में हैं। इन अंधभक्तों ने खुद अपने कथित आदर्श नेता या बाबा के आचरण को  महसूस नहीं किया है। कुछ भी स्वयं की अनुभूति पर आधारित नहीं है। सब सुना-सुनाया दर्शन है। काश ! ऐसे लोगों में सच्ची प्रज्ञा की लौ जले। वे किसी बात को तभी मानें जब  वो तर्कसंगत, बुद्धि सम्मत और विधि सम्मत हो।

Source : Vishvadeep nag, Freelance journalist.